अनुपमा
उडीसा के बालासोर जिला के कोठापाडा गांव
की रहनेवाली उर्मिला और झारखंड के सरायकेला के भुरसा गांव की रहनेवाली चामी मुरमू.
इन दोनों में किसी का नाम सुना है आपने. संभव है, कुछ
लोग जानते हों और बहुत हद तक उम्मीद है, बहुतेरे ने कभी
इनका नाम न सुना हो. नाम जानते हो, तो भी, नहीं जानते हो, तो भी, हम आपको उनके बारे में थोड़ी-सी बात बताते हैं.
पहले उड़ीसा वाली उर्मिला की बात. उर्मिला
की जगह दूसरी महिला होती तो न जाने क्या करती और समाज की उलाहना सुनकर खुद को
संभाल भी पाती या नहीं, कहा नहीं जा सकता. उर्मिला के सामने भी
दुखों का पहाड़ था, समाज-परिवार के ताना रोज-ब-रोज उन्हें
तनाव की नई दुनिया में ले जा रहा था. ऐसे में करीब दो दशक पहले दुख के क्षणों में
सुख की तलाश शुरू की. बाद में उसे ही जीवन का लक्ष्य बना लिया. पिछले दो दशक से वे
हर साल, हर सुबह की शुरुआत एक पेड़ लगाने से करतीरही. अपने
आसपास के करीब पांच दर्जन गांवों में एक लाख से ज्यादा पेड़ लगायी. उनके पति,
जो पेशे से दर्जी का काम करते हैं, उन्होंने
भी साथ देना शुरू किया. उर्मिला दो बेटियों की मां बनी, बाद
में बेटियों ने भी इस अभियान को आगे बढ़ाना शुरू किया. पेड़ों के प्रति उर्मिला की
निष्ठा और लगन ऐसी रही कि इलाका में उन्हें ‘गाछा
मां’ व ‘वृक्ष्य मां’
के नाम से बुलाया जाने लगा. उर्मिला सिर्फ पेड़ लगाती ही नहीं, बल्कि उसके बड़े होने तक उसकी सेवा भी करती है. वह हर सुबह नये पेड़ों को
काजल व हल्दी लगाती हैं और उनकी बेटियां गांव की अन्य लड़कियों के साथ मिलकर
रक्षाबंधन में राखी बांधती है. उर्मिला हर दिन कम से कम दस पेड़ लगाती रही.
कभी-कभार यह संख्या सौ भी पार करती रही. उर्मिला ने लोगों को जागरूक करने के लिए ‘पाला गायक’ नाम से एक लोकसंगीत दल बनाया. संगीत के
जरिये पेड़ का महत्व समझाने लगी. लोग समझने लगे, उतनी
सहजता और आत्मीयता के साथ, जितना कि कोई
ग्लोबल वार्मिंग पर भाषण देने वाला विशेषज्ञ नहीं समझा पाता. लेकिन हम उर्मिला को
नहीं जानते. उर्मिला जैसों को नहीं जान पाते.
जब उर्मिला को नहीं जानते तो चामी मुरमू
को तो जानने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि वह तो
झारखंड से हैं. झारखंड से तो खबरिया दुनिया का वास्ता वैसे भी खान-खनिज, लूट-पाट, माओवाद-राजनीति के दायरे से बाहर नहीं
जाता. हम थोड़ा चामी के बारे में भी जान लेते हैं. चामी को भले ही मीडिया के जरिये
पूरा देश क्या, पूरा झारखंड भी नहीं जानता लेकिन उनके
इलाके का हर कोई अब उनके काम से जानता है. महज 42
वर्ष की उम्र में पहुुची हैं अभी चामी लेकिन इतनी ही उम्र में उन्होंने 25 लाख से अधिक पौधों को जिंदगी दी है उन्होंने, जिससे
उनका इलाका तो हरा-भरा हो ही गया है, उनकी तरह न जाने
कितनी महिलाएं उनकी राह पर चलने को तैयार हो गयी है. चामी बताती हैं कि 1990 के आसपास उन्हेांने घर की देहरी से बाहर कदम रखा.महिलाओं को संगठित कर
एक संगठन बनाया. महिला होने के नाते तरह-तरह की बातें सुननी पड़ीं. लोग ताने देते
रहे लेकिन वे अपने अभियान में लगी रही. खुद बीज से पौधे को तैयार की और फिर पौधे
को आसपास के इलाके में लगाना शुरू की. फलदार-फूलदार, सभी
प्रकार के पौधे. चामी ने तय किया कि इलाके के नौजवानों को जोड़ना है तो फिर उन्हें
इस पेड़ लगाने में, उन्हें बचाने में, बढ़ाने
में रोजगार का पाठ भी पढ़ाना होगा. उन्होंने वैसा ही किया. नौजवानों को जोड़कर
उन्हें फलदार-फूलदार वृक्ष लगाने को प्रेरित की, ताकि
इससे उनकी आमदन हो और इसी बहाने वे पर्यावरण का भला हो. चामी कहती हैं, मेरा एकमात्र और सबसे बड़ा मकसद तो सिर्फ यह था कि अंधाधुंध काटे जा रहे
पेड़ों, उजाड़ै जा रहे जंगल में कोई जंगल को बढ़ाने वाला,
पेड़ों को लगानेवाला भी तो हो. मैंने खुद इसकी कोशिश की और बाद में तो
एक-एक कर लोग जुड़ते गये और कारवा ही बनता गया.चामी को कई पुरस्कार मिल चुके हैं
लेकिन सच यह भी है कि चामी को खुद अपने झारखं डमें मान-सम्मान नहीं प्राप्त है,
जिसकी दरकार है और जिसकी वह हकदार भी हैं.
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